पवन गुप्ता और अनुराधा जोशी, जो मूलतः विपश्यना ध्यान पद्धति से प्रेरित थे, वे किसी पर्वतीय क्षेत्र में अपना शेष जीवन यापन करने के उद्देश्य से सन् 1989 की शुरुआत में मसूरी आए। कलकत्ता व अन्य बड़े शहरों के अनुभव से संपन्न व शिक्षित इस दंपत्ति का उस समय यह मानना था कि सतत विकास के लिए शिक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण है।
वे अक्सर मसूरी के पास के गाँव व टिहरी जनपद में जौनपुर क्षेत्र के गाँव में घूमने जाया करते थे। स्थानीय निवासियों ने उन्हें अपने गाँव और आसपास के क्षेत्रों में घूमते देख उनसे अपने बच्चों को पढ़ाने का अनुरोध किया।
शुरुआत में कुछ समय देहरादून जाने वाले रास्ते पर, भट्टा ग्राम पंचायत के डोम गाँव में उन्होंने काम किया। उसके बाद मसूरी के पास जौनपुर क्षेत्र के स्थानीय निवासियों के आग्रह पर वहाँ के कुछ गाँव का भ्रमण किया। स्थानीय निवासियों और विशेषकर महिलाओं ने बताया कि उनके क्षेत्र में स्कूल ना होने के कारण बच्चे पढ़-लिख नहीं पाते। जौनपुर क्षेत्र के गाँवों में कई युवा ऐसे हैं जो पूर्ण निरक्षर हैं।
उत्तराखण्ड राज्य नहीं बना था। उत्तर प्रदेश सरकार का स्कूलों के लिए यह नियम था कि बड़ी जनसंख्या वाले किसी एक क्षेत्र में ही एक प्राइमरी स्कूल बनेगा। यह नियम मैदानों के लिए तो ठीक ही था लेकिन पर्वतों के लिए यह नियम ठीक नहीं था। जौनपुर में गाँव, औसतन 15 से 18 परिवारों के होते हैं जिनकी आबादी लगभग 100-150 तक होती है। यह गाँव बिखरे हुए हैं। एक गाँव से दुसरे गाँव पखडंडी के पैदल रास्ते से 1 से 1.30 घंटे में पहुंचा जाता है। उत्तर प्रदेश सरकार के उस नियम के चलते जौनपुर में अधिकतर गाँवों से प्राइमरी स्कूल की दूरी बहुत अधिक थी जिसके चलते छोटे बच्चों के लिए तो स्कूल जाना लगभग असंभव ही था। छोटी आयु में पढ़ाई प्रारम्भ ना होने के कारण वे जीवन भर वे निरक्षर ही रह जाते थे।
जौनपुर के लोगों ने पवन जी और अनुराधा जी से उनके गाँव में स्कूल प्रारम्भ करने का अनुरोध किया और इसके लिए हर सम्भव सहयोग करने का भरोसा भी दिलाया। इस पर पवन जी और अनुराधा जी ने कुछ गाँवों में जाकर, बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। गाँव वालों ने ही पढ़ाई के लिए कमरे आदि की व्यवस्था की। इससे एक स्कूल शुरू करने की चर्चा भी होने लगी।
गाँव के ही कुछ 10वीं और 12वीं पास युवाओं को शिक्षक के रूप में प्रशिक्षित किया गया। उन्हें मानदेय देने के लिए कुछ पैंसों का भी प्रबंध किया गया। 1989 के अंत तक ‘सिद्ध’ का एक संस्था के रूप में पंजीकरण हुआ और ग्राम भेड़ीयान में ‘हमारी पाठशाला’ नाम से सिद्ध ने पहला प्राइमरी स्कूल प्रारम्भ हुआ। इस स्कूल के लिए जमीन गाँव वालों ने दी और भवन निर्माण में भी ग्रामीण जनों ने पूरा सहयोग किया।
स्कूलों और बालवाड़ियों की स्थापना :ग्राम भेड़ीयान के बाद, अगले 3-4 वर्षों में इस यात्रा में, ‘सिद्ध’ ने उत्तराखंड के टिहरी जिले के जौनपुर क्षेत्र में 30 शिक्षा केन्द्र प्रारम्भ किये, जो 40 गाँव के बच्चों को शिक्षा दे रहे थे। जिसमें कक्षा पाँच तक के प्राइमरी स्कूल जिन्हें ‘हमारी पाठशाला’ नाम दिया गया और बालवाड़ियाँ और बालशालायें शामिल थीं। चार-पाँच गाँवों के बीच एक स्कूल खोला गया। बाकि सभी गाँव में बालवाडियाँ थी। कुछ ऐसे गाँव थे जो अब भी सिद्ध के खोले स्कूलों से दूर थे। वहाँ की बालवाड़ियों को कक्षा 2 तक उच्चीकृत किया गया उन्हें बालशालायें कहा गया।
सभी शिक्षा केन्दों के लिए स्थानीय युवाओं को ही अध्यापक के रूप में प्रशिक्षित किया गया। प्राइमरी स्कूलों में कक्षा 8, कक्षा 10 या कहीं-कहीं कक्षा 12 पास युवाओं को शिक्षक बनाया गया। बालवाड़ियों में तो कक्षा 5 पास किशोरियों को भी सहायिका बनाया गया। शिक्षक बने इन सभी युवाओं ने अपने आगे की पढ़ाई सिद्ध में रह कर ही पूरी की। उनमें से कई ने तो अपनी उच्च शिक्षा में बेहतरीन प्रदर्शन किये।
स्कूलों में अधिकतर एक गाँव के युवा किसी दूसरे गाँव में स्थापित स्कूल में जाकर पढ़ाते थे। उस नये गाँव में उनके रहने व अन्य व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी भी स्थानीय लोग ही उठाते थे। सिद्ध ने अपना एक प्रयोगात्मक माध्यमिक स्कूल ‘बोधशाला’ कैम्पटी गाँव में प्रारम्भ किया।
बोधशाला: बोधशाला का उद्देश्य था कि यहाँ कुछ ठोस प्रयोग किए जाएँ, और यदि वे सफल हों, तो उन्हें ‘सिद्ध’ के अन्य स्कूलों में भी लागू किया जाए।
हमारा प्रयास यह रहता था कि अंग्रेजी पद्धति की प्रचलित शिक्षा, जिसने घर, समाज और स्कूल के बीच की दूरी को बढ़ा दिया है, उसे कम किया जा सके। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए, यहाँ कई प्रयोग किए गए।
उदाहरण के लिए, स्कूल में खेती, भोजन बनाना, और भोजन व स्वास्थ्य के संबंध को समझने जैसे प्रयास किए गए। गणित और विज्ञान को आयुर्वेद की विभिन्न दवाइयाँ बनाने की प्रक्रिया से जोड़ा गया, ताकि बच्चे वजन, अनुपात, तापमान आदि को सीधे-सीधे समझ सकें। इस तरह विज्ञान और गणित केवल अमूर्त विषय न रहकर, रोजमर्रा के जीवन से जुड़े। इस तरह के अन्य कई प्रयोगों को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया।
यहाँ हमारा एक और महत्वपूर्ण प्रयास यह रहा कि प्रचलित शिक्षा पद्धति, जो शब्द से अर्थ की ओर बढ़ती है, पर पुनर्विचार किया जाए। हमारा उद्देश्य था कि बच्चे पहले अर्थ या वास्तविकता को अपने अनुभवों के माध्यम से समझें और फिर शब्द बाद में आएं। अर्थात, पहले अर्थ और फिर शब्द। इस अवधारणा को पुष्ट करने के लिए कई प्रयोग किए गए, जो अत्यंत सफल रहे।
महिला दल : 1989 में ही सिद्ध को ‘महिला सामाख्या’ की ओर से 10 महिला दल बनाने की जिम्मेदारी भी मिली। इससे महिलाओं से साथ रिश्ते और प्रगाढ़ हुए। 1990 से 8 मार्च को महिला मेला बनाने की परंपरा प्रारम्भ हुई। इस दिन क्षेत्र की सभी महिलायें स्थानीय भोजन, लोक कला व संगीत आदि की प्रदर्शिनी आदि लगाती थी। कुछ महिलाओं को सामाजिक नेतृत्व करने हेतु पुरस्कार भी दिये जाते थे। पूरे मेले का संयोजन स्थानीय महिलायें ही करती थीं।
शुरूआत में ‘साक्षरता’ और ‘शिक्षा’ सिद्ध के लिए भी पर्यायवाची शब्द ही थे। इन दोनों शब्दों के बीच का फर्क प्रारम्भ में सिद्ध ने जौनपुर की महिलाओं से सीखा। वे महिलाएं, जो अनेक प्रकार के काम जानती थीं लेकिन साक्षर नहीं थीं, हमें यह अनुभव हुआ कि वे हमसे कहीं अधिक शिक्षित थीं। सिद्ध के कार्यकर्ताओं ने इन महिलाओं से संवाद करना प्रारंभ किया।
उन्होंने हमें सिखाया कि सच्चा संवाद तभी संभव है जब दो लोगों के बीच बराबरी का रिश्ता हो, निर्भीकता से अपनी बात रखने का अवसर हो, और असहमति के लिए पर्याप्त जगह हो। कार्यकर्ताओं ने महिलाओं की बातों को ध्यान से सुना, जो पहले शायद ही किसी ने किया था। महिलाओं ने भी यह स्वीकार किया कि अगर वे गाँव में यह बातें करतीं, तो कोई ध्यान नहीं देता और उनकी बात वहीं खत्म हो जाती। जब कोई ध्यान से सुनता है, तो वही बात "जिंदा" हो जाती है। तब वह न तेरी बात होती है, न मेरी बात - वह ‘हमारी बात’ बन जाती है। हमारी बात तभी पूरी होती है जब उसे सुनकर उस पर अमल किया जाए। सिद्ध के भावी कार्यकर्मों में इस प्रकार की ‘हमारी बात’ का असर देखने को मिलता है।
महिलाओं और गाँव समाज के अभिभावकों ने मिलकर वर्तमान शिक्षा की प्रासंगिकता पर सवाल उठाए और आधुनिकता की कठोर आलोचना करने का साहस किया। उन्होंने सीधे लेकिन गहरे सवाल पूछे, जैसे:
पढ़ा-लिखा इंसान कहाँ फिट होता है ?
अगर गाँव का बच्चा शहर में और शहर का बच्चा विदेश में फिट होता है, तो हमारे गाँव और देश का क्या होगा?
इन सवालों ने हमारी मान्यताओं को झकझोर दिया और हमें सोचने को मजबूर किया। इन्हीं प्रश्नों के सहारे सिद्ध ने शिक्षा को प्रासंगिक बनाने के कई प्रयोग किए।
उन्हीं दिनों हमें गुणात्मक शोध के कई तरीके सीखने का अवसर मिला। इन विधियों की मदद से हमने साक्षात्कार और समूह चर्चाओं द्वारा लोगों की कही गई बातों का विश्लेषण किया। हमने शिक्षा और साक्षरता के बीच का अंतर समझा। यह भी समझा कि आधुनिक शिक्षा ने गाँवों में स्थानीय बोली, भाषा, वेशभूषा, और रहन-सहन को हीन बना दिया है। इसके परिणामस्वरूप, हाथ के काम को "छोटा काम" मानने की प्रवृत्ति बढ़ी, जिससे गाँव, परिवार, और समाज में बिखराव पैदा हुआ।
इस दौरान सिद्ध की टीम यह भी देख रही थी कि गाँवों में बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक और सामाजिक बदलाव आ रहे थे। धीरे-धीरे गाँव का स्वावलंबन कमजोर हो रहा था और उनकी आर्थिक निर्भरता बाहरी स्रोतों पर बढ़ती जा रही थी। ‘अच्छे जीवन’ की एक काल्पनिक परिभाषा ने स्थानीय समुदाय को कृत्रिम गरीबी की ओर धकेल रहा था, जिसके परिणामस्वरूप उनकी पारंपरिक ज्ञान प्रणालियाँ धीरे-धीरे समाप्त हो रही थीं। उनके सहज बौद्धिक स्तर का ह्रास हो रहा था और वे शहरों तथा तथाकथित शिक्षित लोगों की नकल करने लगे थे। सिद्ध, पूरी सजगता से देख रहा था कि इस पूरे बदलाव में शिक्षा की एक बड़ी भूमिका है।
जहाँ एक ओर सिद्ध आधुनिक शिक्षा के बच्चों और परिवारों पर पड़ रहे नकारात्मक प्रभाव को महसूस कर रहा था, वहीं दूसरी ओर यह भी दिख रहा था कि आधुनिकता के दबाव में आकर ग्रामीण अभिभावक अपने बच्चों को बेहतर नौकरी पाने के दृष्टिकोण से स्कूल भेजते हैं। वे यह भी चाहते हैं कि उनके बच्चों को अंग्रेजी सिखाई जाए और वे आधुनिक दुनिया में फिट हो सकें, इसके लिए उन्हें पूरी तरह से तैयार किया जाए। हमें यह भी स्पष्ट हो गया कि समाधान तभी संभव है जब हम शिक्षा के साथ आत्मविश्वास, आजीविका, और सहजता को जोड़ सकें।
जैसे-जैसे शिक्षा की समझ बढ़ी, सिद्ध ने शिक्षा केंद्रों की संख्या बढ़ाने के बजाय, शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने पर ध्यान केंद्रित किया। शिक्षा को प्रासंगिक बनाने के लिए कई प्रयोग किए गए। साथ ही, निरपेक्ष और सापेक्ष आत्मविश्वास पर गहन चिंतन हुआ।
यह समझ आया कि प्रचलित शिक्षा का उद्देश्य सापेक्ष आत्मविश्वास जगाना है। यह भी स्पष्ट हुआ कि पाठ्यपुस्तकें कई ऐसी मान्यताएँ बनाती हैं, जो हीनभावना को बढ़ावा देती हैं। इस समस्या के समाधान के लिए पाठ्यपुस्तकों पर आधारित शिक्षण के बजाय, परिवेश—जैसे पेड़-पौधे, खेती, त्योहार आदि—को आधार बनाकर शिक्षण शुरू किया गया। मूलतः विषय केन्द्रित शिक्षण पद्धति से सिद्ध वस्तु/वास्तविकता केन्द्रित शिक्षण पद्धति की ओर मुड़ा। इस दृष्टिकोण से कई सकारात्मक परिणाम सामने आए।
सिद्ध पर अवश्य कोई बड़ी कृपा रही होगी कि, जहाँ एक ओर जौनपुर के समुदाय के लोग आधुनिक शिक्षा पर सवाल उठा रहे थे, वहीं दूसरी ओर धर्मपाल जी, किशनजी, और रिमपोचेजी जैसे विद्वान अपने ज्ञान से इस दृष्टिकोण की पुष्टि कर रहे थे। इन गुरुजनों के मार्गदर्शन ने हमें देश के औपनिवेशिक इतिहास और उससे उपजी गुलाम मानसिकता के बारे में जागरूक किया। देश-दुनिया की समझ गहरी हुई, और इससे सभी साथियों को अपार लाभ मिला। धीरे-धीरे सिद्ध ने अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली।
इस पूरे बदलाव और द्वन्द्ध को और गहराई से देखने के लिए सिद्ध ने कुछ गम्भीर शोध भी किये जो किसी न किसी स्थानीय मुद्दे से जुड़े रहे। सिद्ध ने आधुनिक शिक्षा पर लोगों के विचारों का व्यवस्थित सर्वेक्षण कर उन्हें आज की भाषा शैली मैं प्रस्तुत करने का प्रयास किया। इसके लिए सिद्ध में ‘संशोधन’ नाम शोध टीम का गठन हुआ। इस टीम कई महत्पूर्ण अध्ययन जिन्हें ना सिर्फ राष्ट्रीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कई महत्वपूर्ण चर्चाओं को जन्म दिया।
सिद्ध द्वारा किये गये महत्वपूर्ण शोध निम्न प्रकार से हैं।
शिक्षा की गुणवत्ता और उसका बच्चों व समाज पर पड़ रहे प्रभाव को समझने के लिए यह एक महत्वपूर्ण शोध रहा। राष्ट्रीय स्तर पर जिन भी प्लेटफार्म पर शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर गम्भीर बात होती है वहाँ A Matter of Quality की चर्चा अवश्य एक बार अवश्य होती है।
Child and the Family - A Study of the Impact of Family Structure upon the Children of Rural Uttarakhand जिस क्षेत्र में सिद्ध अपने स्कूल चला रहा था वहाँ पारम्परिक तौर पर संयुक्त परिवारों का बहुत महत्व रहा है। लेकिन धीरे-धीरे आधुनिकता के प्रभाव में यह संयुक्त परिवार टूट कर एकल परिवार में बदल रहे थे। इसका बच्चों पर और उनकी शिक्षा पर प्रभाव को जानने के लिए यह शोध सम्पादित किया गया।
Text and Context पाठ्यपुस्तकों पर आधारित शोध: विभिन्न स्कूलों में पढ़ाई जा रही पाठ्यपुस्तकों का गहराई से अध्ययन किया गया। जिसमें यह बाल निकल कर आयी कि पुस्तक किसी भी विषय की क्यों ना हो उनके पीछे की दृष्टि आधुनिकता के अंर्तद्वन्द्ध को ही बढ़ावा देती है।
सिद्ध की संशोधन टीम ने ऐसे कई शोध किए जो किसी कारणवश प्रकाशित नहीं हो सके, जैसे:
जौनपुर क्षेत्र के त्योहारों और जन्म से मृत्यु तक के रीति-रिवाजों का सर्वेक्षण
इस क्षेत्र के मिथक, लोकगाथाएं, और लोकगीतों का एकत्रीकरण
सिद्ध में शोध एक सतत प्रक्रिया के रूप में विकसित हुआ। विभिन्न स्कूलों और समुदायों में हो रहे बदलावों के प्रति सिद्ध की टीम सजग रही। यह टीम इन बदलावों को अपने अनुभवों के साथ जोड़कर देखती रही। इन अनुभवों को सिद्ध में होने वाली नियमित बैठकों और चर्चाओं में शामिल किया जाता था। बैठकों में हो रहे सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार के बदलावों पर चर्चा होती थी। अच्छे बदलावों को सुदृढ़ करने और बुरे बदलावों के प्रभाव को कम करने पर गहन मंत्रणा की जाती थी। किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद, उसे अमल में लाने के तरीकों पर चर्चा की जाती थी। इसी आधार पर पुराने कार्यक्रमों में सुधार या बदलाव किए जाते थे, और कुछ नए कार्यक्रम भी प्रारंभ होते थे। इसी प्रक्रिया के अंतर्गत, युवाओं के लिए एक वर्षीय आवासीय कार्यक्रम 'संजीवनी' और साप्ताहिक कार्यशाला 'सन्मति' शुरू किए गए। वर्तमान में संवाद की जो प्रक्रिया चल रही है, वह भी इन्हीं चर्चाओं का परिणाम है।
शिक्षक प्रशिक्षण
सिद्ध, स्कूलों व बालवाड़ियों के लिए 10वीं व 12वीं पास स्थानीय युवाओं को निरन्तर अध्यापक के रूप प्रशिक्षित कर रहा था। जो अध्यापक स्कूलों में पढ़ा रहे थे उनका भी निरन्तर प्रशिक्षण चलता था। इसके लिए सिद्ध ने शिक्षकों के लिए कई मार्गदर्शिकायें प्रकाशित की। जिनका उपयोग शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही अन्य संस्थाओं ने भी किया। सिद्ध द्वारा प्रकाशित शिक्षक मार्गदर्शिकायें
1. हमारे जौनपुर के पेड़-पौधे भाग 01
2. हमारे जौनपुर के पेड़-पौधे भाग 02
3. बालवाड़ी कलेंडर
4. हमारी बालवाड़ी
5. बालवाड़ी सहायिका
6. इतिहास की समझ
7. Understanding History
इसी दौरान सिद्ध ने युवाओं के साथ एक वर्षीय आवसीय कार्यक्रम ‘संजीवनी’ प्रारम्भ किया। इसका उद्देश्य ग्रामीण युवाओं (17 वर्ष से अधिक आयु के) को उनके वर्तमान के प्रति सजग बनाना व भविष्य के लिए शैक्षिक और आजीविका के अवसरों के लिए तैयार करना था।
संजीवनी कार्यक्रम के साथ ही सिद्ध में ‘सन्मति’ नाम से युवाओं के साथ एक सप्ताह की आवसीय कार्यशालायें भी प्रारम्भ की। इन कार्यशालाओं में पूरे देश से ग्रामीण युवा प्रतिभाग लेने आते थे और देश की वर्तमान राजनैतिक व सामाजिक दशा पर गहन विमर्श होता था।
देश प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, शिक्षकों, जन प्रतिनिधि, नीति निर्धारक आदि के साथ संवाद स्थापित करने के उद्देश्य से ‘संवाद’ कार्यक्रम की शुरुआत हुई। इसके अन्तर्गत राष्ट्रीय स्तर की गोष्ठियों का आयोजन कर सिद्ध में हो रहे शिक्षा के अनुभवों के सन्दर्भ में देश की वर्तमान दिशा व दशा पर गहन मंत्रणा होती थी। इनमें से कुछ गाष्ठियों में इुई चर्चाओं को पुस्तक के रूप में प्रकाशित भी किया गया।
दानदाता संस्थाओं से मुक्ति
धीरे-धीरे सिद्ध में यह समझ विकसित हो चली थी कि जिन विशेषकर अंतर्राष्ट्रीय दानदाताओं के सहयोग से सिद्ध में विभिन्न कार्यक्रम संचालित हो रहे हैं। उसके पीछे एक वृहद अंतर्राष्ट्रीय एजेण्डा छुपा हुआ है। यह सभी किसी न किसी रूप में आधुनिकता को बढ़ावा देते हैं, समुदाय की शक्ति को कमजोर करते हैं। वे हमारे समाज को पश्चिमी दृष्टि और मान्यताओं के चश्मे से देखते थे। और साथ ही उन्हीं मान्यताओं को हमारे समाज पर आरोपित करने का प्रयास करते थे। जिसके कारण हमारे समाज में टूटन पैदा होती थी। इसी कारण सिद्ध ने कई बड़ी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा प्रस्तावित परियोजनाओं को अस्वीकृत किया। यहाँ तक की सिद्ध के एकाउंट में आये पैंसे को वापिस भी किया।